दौलत सा मूल्यवान वक्त
थामना चाहा इस वक्त को
मुठ्ठी मे कैद-सी
पर फिसल रही है कमबख्त
मुठ्ठी से रेत-सी
नखरे बड़े है हथेली से फिसलती
इस नदी के
न हाथो मे रुकती है
न ज़रा थमती है
ये जिन्दगी है साहब
जो पलभर को भी नही रूकती है।
मुठ्ठी मे कैद-सी
पर फिसल रही है कमबख्त
मुठ्ठी से रेत-सी
नखरे बड़े है हथेली से फिसलती
इस नदी के
न हाथो मे रुकती है
न ज़रा थमती है
ये जिन्दगी है साहब
जो पलभर को भी नही रूकती है।
Comments
Post a Comment