निष्पक्ष कलम

कलम का मेरी कोई लिंग नही है,
ये कोई स्त्री या पुलिंग नही है,
नही करती ये भेदभाव लोगो मे,
जो झंझौङ देता है उसे निचौङ देती है,
      ये अपने लेखन मे।

जो डर जाउ तो मैं कलम कैसी?
    जो रूक जाउ तो मैं कलम कैसी?
जो सह जाउ तो मैं कलम कैसी?
  डट कर अपनी बात को आगे लाउ
         हूं मैं कलम ऐसी।

चीर कर दिल को रख देती हुं,
हाल-ए-दिल भी ब्य कर देती हुं,
खामोश हो जाते है जब लव्ज,
तब मैं लिखकर सब ब्य कर देती हुं।

हू एक सस्ती-सी कलम मैं,
पर मोल शब्दो का बडा देती हुं,
किमत मेरी नही उन शब्दो की है,
    जो मैं ब्य कर देती हुं।

चुप हो जाता है जब कोई,
  तब मैं बोल उठती हुं,
जब समेट लेता है कोई खुद को खुद मे,
 तब मैं सब लिखकर ब्य कर देती हुं।

हाँ, हू मैं कलम सस्ती-सी,
 पर मोल शब्दो का बडा देती हूं।
इसलिए कभी कोई महाकाव्य,
 तो कभी गहरा इतिहास लिख जाती हुं।

Comments